अप्रतिम कविताएँ
कनुप्रिया (अंश 5) समापन

देखिए पूरी श्रृंखला 'कनुप्रिया मुखरित हुई'

क्या तुम ने उस वेला मुझे बुलाया था कनु?
लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी!

          इसी लिए तब
          मैं तुम में बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,
          इसी लिए मैं ने अस्वीकार कर दिया था
          तुम्हारे गोलोक का
          कालावधिहीन रास,

          क्योंकि मुझे फिर आना था!

तुम ने मुझे पुकारा था न
मैं आ गयी हूँ कनु!

          और जन्मान्तरों की अनन्त पगडण्डी के
          कठिनतम मोड़ पर खड़ी हो कर
          तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
          कि इस बार इतिहास बनाते समय
          तुम अकेले न छूट जाओ!

सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अन्तरंग
सखी को तुम ने बाहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गये प्रभू?

          बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
          तुम्हारे इतिहास का
          शब्द, शब्द, शब्द ....
          राधा के बिना
          सब
          रक्त के प्यासे
          अर्थहीन शब्द!

सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी जरूरत थी न, लो मैं सब छोड़ कर आ गयी हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अन्तरंग केलिसखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन कर रह गयी .........


          मैं आ गयी हूँ प्रिय!
          मेरी वेणी में अग्निपुष्प गुँथने वाली
          तुम्हारी उँगलियाँ
          अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथतीं?

                तुम ने मुझे पुकारा था न!

                मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
                तुम्हारी प्रतीक्षा में
                अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!
- धर्मवीर भारती
काव्यपाठ: रुचि वार्ष्णेय
Kanupriya - Dharmaveer Bharati
Published by: Bharatiya Jnanpith
18, Institutional Area, Lodi Road,
New Delhi - 110 003

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'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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