अप्रतिम कविताएँ
क्योंकि
...... क्योंकि सपना है अभी भी -
इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशायें,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि है सपना अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
यह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!
- धर्मवीर भारती
Contributed by: Pankaj Bagri

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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