अप्रतिम कविताएँ
कनुप्रिया (अंश 3) उसी आम के नीचे

देखिए पूरी श्रृंखला 'कनुप्रिया मुखरित हुई'

उस तन्मयता में
तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपा कर
लजाते हुए
मैं ने जो-जो कहा था
पता नहीं उस में कुछ अर्थ था भी या नहीं :

आम्र-मंजरियों से भरी हुई मांग के दर्प में
मैं ने समस्त जगत् को
अपनी बेसुधी के
एक क्षण में लीन करने का
जो दावा किया था - पता नहीं
वह सच था भी या नहीं:
जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है
इस तन में काँप-काँप जाता है
वह स्वप्न था या यथार्थ
- अब मुझे याद नहीं

पर इतना जरूर जानती हूँ
कि इस आम की डाली के नीचे
जहाँ खड़े हो कर तुम ने मुझे बलाया था
अब भी मुझे आ कर बड़ी शान्ति मिलती है

***
न,
मैं कुछ सोचती नहीं
कुछ याद भी नहीं करती
सिर्फ मेरी अनमनी, भटकती उँगलियाँ
मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा
वह नाम लिख जाती हैं
जो मैं ने प्यार के गहनतम क्षणों में
खुद रखा था
और जिसे हम दोनों के अलावा
कोई जानता ही नहीं

और ज्यों ही सचेत हो कर
अपनी उँगलियों की
इस धृष्टता को जान पाती हूँ
चौंक कर उसे मिटा देती हूँ
        (उसे मिटाते दुःख क्यों नहीं होता कनु!
        क्या अब मैं केवल दो यन्त्रों का पुंज-मात्र हूँ?
        - दो परस्पर विपरीत यन्त्र -
        उन में से एक बिन अनुमति नाम लिखता है
        दूसरा उसे बिना हिचक मिटा देता है!)

***
तीसरे पहर
चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हूँ
और हवा ऊपर ताज़ी नरम टहनियों से,
और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों
        से खेल करती है
        और मैं आँख मूंद कर बैठ जाती हूँ
और कल्पना करना चाहती हूँ कि
उस दिन बरसते में जिस छौने को
अपने आँचल में छिपा कर लायी थी
वह आज कितना, कितना, कितना महान हो गया है
        लेकिन मैं कुछ नहीं सोच पाती
        सिर्फ -
        जहाँ तुम ने मुझे अमित प्यार दिया था
वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, तिनके, टुकड़े चुनती रहती हूँ
        तुम्हारे महान बनने में
        क्या मेरा कुछ टूट कर बिखर गया है कनु!

वह सब अब भी
ज्यों का त्यों है
दिन ढले आम के नये बौरों का
चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना
जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना

        नया है
        केवल मेरा
        सूनी माँग आना
        सूनी माँग, शिथिल चरण, असमर्पिता
        ज्यों का त्यों लौट जाना ........

उस तन्मयता में - आम-मंजरी से सजी माँग को
तुम्हारे वक्ष में छिपा कर लजाते हुए
बेसुध होते-होते
जो मैं ने सुना था
क्या उस में कुछ भी अर्थ नहीं था?
- धर्मवीर भारती
काव्यपाठ: पारुल 'पंखुरी'
Kanupriya - Dharmaveer Bharati
Published by: Bharatiya Jnanpith
18, Institutional Area, Lodi Road,
New Delhi - 110 003

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इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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