अप्रतिम कविताएँ
कनुप्रिया (अंश 2) विप्रलब्धा

देखिए पूरी श्रृंखला 'कनुप्रिया मुखरित हुई'

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद,
          रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा -
                      - मेरा यह जिस्म

          कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था
          तुम्हारे आश्लेष में

              आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा
              टूटा है, म्लान है
                      दुगुना सुनसान है
                      बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा -
मेरा यह जिस्म -
टूटे खँडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में
छूटा हुआ एक साबित मणिजटित दर्पण-सा -
          आधी रात दंश भरा बाहुहीन
          प्यासा सर्पीला कसाव एक
          जिसे जकड़ लेता है
          अपनी गुंजलक में

अब सिर्फ मै हूँ, यह तन है, और याद है

खाली दर्पण में धुँधला-सा एक, प्रतिबिम्ब
          मुड़-मुड़ लहराता हुआ
          निज को दोहराता हुआ!
          ...................
          ...................

कौन था वह
जिस ने तुम्हारी बाँहों के आवर्त में
गरिमा से तन कर समय को ललकारा था!

कौन था वह
जिस की अलकों में जगत की समस्त गति
बँध कर पराजित थी!

कौन था वह
जिस के चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण
सारे इतिहास से बड़ा था, सशक्त था!

कौन था कनु, वह,
तुम्हारी बाँहों में
जो सूरज था, जादू था, दिव्य था, मन्त्र था
          अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है।

मन्त्र-पढ़े बाण-से छूट गये तुम तो कनु,
शेष रही मैं केवल,
काँपती प्रत्यंचा-सी
अब भी जो बीत गया,
उसी में बसी हुई
अब भी उन बाहों के छलावे में
कसी हुई
जिन रूखी अलकों में
मैं ने समय की गति बाँधी थी -
हाय उन्हीं काले नागपाशों से
दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण बार-बार
डँसी हुई

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है -
          - और संशय है


- बुझी हुई राख में छिपी चिन्गारी-सा
रीते हुए पात्र की आखिरी बूँद-सा
पा कर खो देने की व्यथा-भरी गूँज-सा ......
- धर्मवीर भारती
काव्यपाठ: अर्चना गुप्ता
Kanupriya - Dharmaveer Bharati
Published by: Bharatiya Jnanpith
18, Institutional Area, Lodi Road,
New Delhi - 110 003

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 कनुप्रिया (अंश 5) समापन
 क्योंकि
 गुनाह का गीत
 चाँदनी जगाती है
 शाम: दो मनःस्थितियाँ
इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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