घर के बाहर कौआ बैठा काँव-काँव चिल्लाता है। 
कौन है आने वाला इसकी खबरें कौआ लाता है। 
पापा की मौसी के घर से गुड़ की भेली आनी हो, 
उस दिन सुबह सवेरे उठता जैसे बुढ़िया नानी हो, 
चीख-चीख कर घर वालों को कौआ राग सुनाता है। 
उस दिन सबसे पहले क्यों, मुझको नहीं जगाता है ?
मास्टर जी के आने पर कौए की छुट्टी होती है। 
हाथ पे पड़ते बेंत ज़ोर के, कान कनैठी होती है। 
शोर सुनाई देता है बस, समझ नहीं कुछ आता है,  
काला अक्षर भी, काले कौए जैसा बन जाता है।  
कभी कभी दादी कहती ये दादाजी के दादा हैं।
पहचानूँ पर कैसे उनको, कौए कितने ज़्यादा हैं! 
जो आकर के गरम जलेबी और मलाई खाता है,  
वो ही है वो कौआ जिससे अपने घर का नाता है! 
मैंने सुना दिन आएगा जब कौआ मोती खायेगा, 
लेकिन शायद मोती उसके कंठ में ही फँस जाएगा! 
क्या मोती खाकर कौआ सच में हंस हो जाता है?
फिर कौए की ज़िम्मेदारी आख़िर कौन निभाता है?
 
और भी कितने पक्षी हैं जो रोज़ द्वार पर आते हैं, 
लेकिन सब कहते हैं पक्षी, बिन पानी मर जाते हैं! 
कौआ कंकड़ डाल-डाल कर पानी ऊपर ले आता है, 
इसीलिए तो मुझको सब चिड़ियों में कौआ भाता है!  
सब कहते हैं कुछ सालों में मैं भी बड़ा हो जाऊँगा। 
फिर अपनी बच्चों जैसी बातों पर खुद पछताऊँगा। 
कविता में तो हर बच्चा किस्से मनगढ़े सुनाता है।
सच बस इतना है कि कौआ काँव-काँव चिल्लाता है!
					
		
					
			
		 
		
		
				
		
		
		
				
		
					काव्यालय को प्राप्त: 15 May 2021. 
							काव्यालय पर प्रकाशित: 9 Jul 2021