अप्रतिम कविताएँ
एकदशानन
अक्सर मेरे विचार बार बार जनक के खेत तक जाते हैं
परन्तु हर बार मेरे विचार कुछ और उलझ से जाते हैं।
जनक अगर सदेह थे, तो विदेह क्यों कहलाते हैं?
क्यों हमेशा हर बात में हम रावण को दोषी पाते हैं?
अक्सर मेरे विचार बार बार जनक के खेत तक जाते हैं।

क्यों दशानन रक्तपूरित कलश जनक के खेत में दबाता है?
क्यों जनक के हल का फल उस घड़े से ही टकराता है?
कैसे रावण के पाप का घड़ा कन्या का स्वरूप पाता है?
क्यों उस कन्या को जनकपुर सिंहासन बेटी स्वरूप अपनाता है?
किस रिश्ते से उस बालिका को जनकपुत्री बताते हैं?
मेरे विचार फिर बार बार जनक के खेत तक जाते हैं।

क्यों रावण सीता-स्व्यंवर में बिना बुलाये जाता है?
क्यों उस सभा में होकर भी वह स्पर्धा से कतराता है?
क्यों उसको ललकार कर प्रतिद्वन्दी बनाया जाता है?
क्यों लंकापति शिवभक्त शिव-धनुष तोड़ नहीं पाता है?
क्यों रावण की अल्प्शक्ति पर शंकर स्वयं चकराते हैं?
मेरे विचार फिर बार बार जनक के खेत तक जाते हैं।

क्यों इतना तिरस्कृत होकर भी फिर चित्रकूट वह जाता है?
किस प्रेम के वश में वह सीता को हर ले जाता है?
कितना पराक्रमी, बलशाली, पर सिया से मुँह की खाता है।
क्यों जानकी को राजभवन नहीं, अशोकवन में ठहराता है?
क्या छल-छद्म पर चलने वाले इतनी जल्दी झुक जाते हैं?
मेरे विचार फिर बार बार जनक के खेत तक जाते हैं।

क्यों इतिहास दशानन को इतना नीच बताता है?
फिर भी लंकापति मृत्युशैया पर रघुवर को पाठ पढ़ाता है।
वह कौन सा ज्ञान था जिसे सुनकर राम नतमस्तक हो जाते हैं?
चरित्रहीन का वध करके भी रघुवर क्यों पछताते हैं?
रक्तकलश से कन्या तक का रहस्य समझ नहीं पाते हैं
इसीलिए तो मेरे विचार जनक के खेत तक जाते हैं।
- स्वप्न मंजुषा शैल
Swapna Shail
Email : [email protected]
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अनुवाद ~ प्रियदर्शन

नेक बने मनुष्य
उदार और भला;
क्योंकि यही एक चीज़ है
जो उसे अलग करती है
उन सभी जीवित प्राणियों से
जिन्हें हम जानते हैं।

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होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...

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