अप्रतिम कविताएँ
साखी
कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय ।
रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ॥

जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास ।
जो है जाको भावता, सो ताही के पास ॥

प्रीतम के पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस ।
तन में मन में नैन में, ताको कहा सँदेस ॥

नैनन की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय ।
पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय ॥

भक्ति भाव भादों नदी, सबै चलीं घहराय ।
सरिता सोइ सराहिये, जो जेठ मास ठहराय ॥

लागी लागी क्या करै, लागी बुरी बलाय ।
लागी सोई जानिये, जो वार पार ह्वै जाय ॥

जाको राखे साइयाँ, मारि न सक्कै कोय ।
बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय ॥

नैनों अंतर आव तूँ, नैन झाँपि तोहिं लेवँ ।
ना मैं देखी और को, ना तोहि देखन देवँ ॥

सब आए उस एक में, डार पात फल फूल ।
अब कहो पाछे क्या रहा, गहि पकड़ा जब मूल ।।

लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़ै बन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं ॥

सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर होय ।
जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय ॥

जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ ।
जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ ॥

बिरहिनि ओदी लाकड़ी, सपचे और धुँधुआय ।
छुटि पड़ौं या बिरह से, जो सिगरी जरि जाय ॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं ॥

इस तन का दीवा करौं, बाती मेलूँ जीव ।
लोही सींचीं तेल ज्यूँ, कब मुख देखीं पीव ॥

हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ ।
बूँद समानी समँद में, सो कत हेरी जाइ ॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं, फल लागै अति दूर ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरज से सब होय ।
माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ॥

दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।
बिना जीव की स्वाँस से, लोह भसम ह्वै जाय ॥

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय ।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय ॥

जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोउ तू फूल ।
तोकि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल ॥

साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ॥

माटी कहै कुम्हार सों, तू क्या रौंदै मोहिं ।
इक दिन ऐसा होइगा, मैं रौंदोंगी तोहिं ॥

माली आवत देखिकै, कलियाँ करीं पुकार ।
फूली-फूली चुनि लईं, कालि हमारी बार ॥
- कबीरदास

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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

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