अप्रतिम कविताएँ
दरवाजे में बचा वन
भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज किन्तु निर्मूल हुआ है।

सहता धूप आँधियाँ सहता जब भी भीगे चुप-चुप रोता।
जब आती जंगल की हवाएं अपने मन का धीरज खोता।
कभी पेड़ था, सच है जानता, हुआ ठूँठ, ये मान न पाता,
दरवाजा कहता ये कैसे? समय आज प्रतिकूल हुआ है।

सहलाया बरसा बूंदों ने हलकी-हलकी दी है थपकी।
कोई कसक याद है आयी टूट गयी है इसकीे झपकी।
जंगल फिर से बुला रहा है लहरा कर वृक्षों की शाखें,
स्पंदन फिर से जाग उठा है जब मौसम माकूल हुआ है।

भीतर कोई गंध उठी है शायद पेड़ की नींद खुली है।
लकड़ी के रेशों में फिर से बीते पल की याद जगी है।
सावन ने एक रंग भरा है ठूंठ आज फिर हरा हुआ है
स्वप्न पेड़ का लौट रहा है वन में फिर बनफूल खिला है।
- गजेन्द्र सिंह
माकूल -- योग्य, अच्छा
यह कविता इस कविता से प्रेरित है
विषय:
प्रकृति (40)
पेड़ (6)

काव्यालय को प्राप्त: 20 Jun 2025. काव्यालय पर प्रकाशित: 4 Jul 2025

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