कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।
केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी खुले ही नहीं;
जकड़े रह गए हैं।
चाँद-तारे सब
काले पड़े हुए
झूठे सलमे-सितारों का काम हैं।
जैसे इस गुलजार गली में
कहीं कोई नहीं,
केवल नाम हैं।
जैसे हर नया दिन
एक आलसी, बे-कहे नौकर-सा
झुँझलाता आता है
और धूल-भरे आँगन को
बे-मन से झाड़ कर
चला जाता है।
काव्यालय को प्राप्त: 10 Nov 2024.
काव्यालय पर प्रकाशित: 25 Apr 2025