अप्रतिम कविताएँ
सुन सुलक्षणा
प्रभु की किरपा -
सुन सुलक्षणा
इस अंतिम बेला में तुम हो संग हमारे

बर्फ़-हुई इस देह धरे के ताप संग हैं हमने भोगे
पुरे हमारे सारे सपने जो थे हमने, सजनी, जोगे

हिरदय अक्सर
गीत हुआ था
दिन कोमल गांधार रहे थे संग तुम्हारे

आदिम छुवन पर्व की यादें हमको रह-रह टेर रही हैं
यौवन की मीठी फुहार को थकी झुर्रियाँ हेर रही हैं

कामदेव के
मंत्र हो गये
बोल सभी वे जो थे हमनें संग उचारे

पतझर हुईं हमारी साँसें, भीतर फिर भी रितु फागुन की
रास हो रहा है यह दिन भी - गूँज आ रही वंशीधुन की

नदीघाट पर
कहीं बज रही
है शहनाई - महाकाल का पर्व गुहारे
- कुमार रवीन्द्र

काव्यालय पर प्रकाशित: 25 Jan 2019

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'अन्त'
दिव्या ओंकारी ’गरिमा’


झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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