अप्रतिम कविताएँ
शाम: दो मनःस्थितियाँ
एक:

        शाम है, मैं उदास हूँ शायद
        अजनबी लोग अभी कुछ आयें
        देखिए अनछुए हुए सम्पुट
        कौन मोती सहेजकर लायें
        कौन जाने कि लौटती बेला
        कौन-से तार कहाँ छू जायें!

                    बात कुछ और छेड़िए तब तक
                    हो दवा ताकि बेकली की भी,
                    द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
                    ताकि आहट मिले गली की भी -

        देखिए आज कौन आता है -
        कौन-सी बात नयी कह जाये,
        या कि बाहर से लौट जाता है
        देहरी पर निशान रह जाये,
        देखिए ये लहर डुबोये, या
        सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाये,

                    कूल पर कुछ प्रवाल छूट जायें
                    या लहर सिर्फ़ फेनावली हो
                    अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
                    कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?

दो:

        वक़्त अब बीत गया बादल भी
        क्या उदास रंग ले आये,
        देखिए कुछ हुई है आहट-सी
        कौन है? तुम? चलो भले आये!
        अजनबी लौट चुके द्वारे से
        दर्द फिर लौटकर चले आये

                    क्या अजब है पुकारिए जितना
                    अजनबी कौन भला आता है
                    एक है दर्द वही अपना है
                    लौट हर बार चला आता है

        अनखिले गीत सब उसी के हैं
        अनकही बात भी उसी की है
        अनउगे दिन सब उसी के हैं
        अनहुई रात भी उसी की है
        जीत पहले-पहल मिली थी जो
        आखिरी मात भी उसी की है

                    एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
                    ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
                    लोग आये गये बराबर हैं
                    शाम गहरा गयी, उदासी भी!
- धर्मवीर भारती
Ref: Sata Geet-Varsha
Pub: Bharatiya Jnanpith
B/45-47 Connaught Place
New Delhi - 110001

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 शाम: दो मनःस्थितियाँ
इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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