अप्रतिम कविताएँ
मृत्यु: दो प्रतिछवि (१)

मुक्ति का द्वार

अब मैं समझ गई हे!
मौत, तुम कहीं भी,
कभी भी आ सकती हो,
तुम्हारा आना निश्चित है, अटल है,
जीवन में तुम ऐसे समाई हो,
जैसे आग में तपन, काँटे में चुभन !
सोच-सोच हर पल तुम्हारे बारे में,
मैं निकट हो गई इतनी,
सखी होती घनिष्ठ जितनी,
तुम बनकर जीवन दृष्टि,
लगी करने विचार- सृष्टि
भावों की अविरल वृष्टि !
मैं जीवन में 'तुमको',
तुम में लगी देखने 'जीवन'
इस परिचय से हुआ
अभिनव 'प्रेम मन्थन'
प्रेम ढला "श्रद्धा" में
"श्रद्धा" से देखा भरकर रूप तुम्हारा -
"सिद्धा" ! तुम्हारे लिए मेरा ये "प्यार"
बना जीवन "मुक्ति का द्वार" !
- दीप्ति गुप्ता
Deepti Gupta
Email: [email protected]
Deepti Gupta
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विषय:
मृत्यु (9)

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कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
..

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जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

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कभी-कभी लगता है
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केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
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..

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