अप्रतिम कविताएँ
जीकर देख लिया
जीकर देख लिया
जीने में -
कितना मरना पड़ता है।
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है।
किन्तु ज़िन्दगी अनुबन्धों के
अनचाहे आश्रय गहती है।
क्या क्या कहना
क्या क्या सुनना
क्या क्या करना पड़ता है
समझौतों की सुइयां मिलती,
धन के धागे भी मिल जाते,
सम्बन्धों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं, सिल भी जाते,
सीवन
कौन, कहाँ कब उधड़े,
इतना डरना पड़ता है।
मेरी कौन विसात यहाँ तो
सन्यासी भी सांसत ढोते।
लाख अपरिग्रह के दर्पण हो
संग्रह के प्रतिबिम्ब संजोते,
कुटिया में
कोपीन कमण्डल
कुछ तो धरना पड़ता है।
- शिव बहादुर सिंह भदौरिया
Ref: Naye Purane, Geet Anka-1, April,1997

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 जीकर देख लिया
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इस महीने :
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हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

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हर रोज़ की तरह
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मेज़ के टुकड़े करने के लिए
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..

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..

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इस महीने :
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मधुप मोहता


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मैं खोल देता हूँ ..

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