अप्रतिम कविताएँ
छापे माँ तेरे हाथों के
कोहबर की दीवारों जैसे
मेरे अन्तर के आँगन में,
धुँधले से, पर अभी तलक हैं,
छापे माँ तेरे हाथों के।

कच्चे रंग की पक्की स्मृतियाँ
सब कुछ याद कहाँ रह पाता
स्वाद, खुशबुएँ, गीतों के स्वर
कतरे कुछ प्यारी बातों के।

हरदम एक मत कहाँ हुए हम
बहसों की सिगड़ी में तापी
दोपहरों के ऋण उतने ही
जितने स्नेहमयी रातों के!

छापे माँ तेरे हाथों के
कतरे कुछ प्यारी बातों के!
- शार्दुला झा नोगजा
कोहबर : दीवारों पर ग्रामीण चित्रकारी

काव्यालय को प्राप्त: 24 Dec 2018. काव्यालय पर प्रकाशित: 16 Oct 2020

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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