अप्रतिम कविताएँ
अनोखा रिश्ता
अरसे पहले मिले थे
दो अजनबी
एक दूसरे से --
कितने अंजान से थे
कितने डरे डरे थे।
निभेगी कि नहीं निभेगी,
तुम संग ज़िन्दगी कैसी कटेगी?
अनगिनत से सवाल थे,
हज़ारों कौतूहल थे,
फिर भी हम चल पड़े साथ साथ
ज़िन्दगी की डगर पर
लिये हाथों में हाथ।
कभी उलझे, कभी रूठ गये,
कभी प्यार में डूब गये
कुछ तुम हमें समझे,
कुछ हम तुम्हे समझे
कुछ हम बदले, कुछ तुम बदले
हौले हौले ही सही
एक डोर में बन्धे।
फिर जो चले
चलते ही गये
जैसे कभी अलग न थे
जैसे कभी अलग न होंगे।

जिन्दगी की शाम है,
उठने लगा ये सवाल है --
तुम पहले या मैं पहले?
तुम न रहे तो अकेले कैसे जिएंगे?
हम न रहे तो अकेले कैसे जीओगे?
कैसा रिश्ता है ये
पति और पत्नी का
कितना अटूट
कितना अनोखा
कितना दृढ़
कितना सच्चा
कितना मधुर।
समय के साथ
जो और बढता है
और पनपता है।
ज्यों ज्यों दूसरे सभी रिश्ते
दूर होते जाते हैं
पति पत्नी और भी करीब होते जाते हैं।
रिश्ता और मजबूत होता जाता है
वैसे ही जैसे
रात के बढ़ने पे
चांद निखरता जाता है।
- वीरेंद्र जैन 'उन्मुक्त'

काव्यालय को प्राप्त: 18 May 2020. काव्यालय पर प्रकाशित: 18 Dec 2020

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 इतना अकेले?
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हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
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खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

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..

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