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आज नदी बिलकुल उदास थी
आज नदी बिलकुल उदास थी।
सोयी थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर -
बादल का वस्त्र पड़ा था।
मैंने उसे नहीं जगाया,
दबे पाँव घर वापस आया।
- केदारनाथ अग्रवाल
काव्यपाठ:
वाणी मुरारका
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बसंती हवा
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साधो, सच है
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धीरे-धीरे हर मकान भी बूढ़ा होता
देह घरों की थक जाती है
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जो देवा बसता है
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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'अधूरी'
प्रिया एन. अइयर
हर घर में दबी आवाज़ होती है
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..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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