अप्रतिम कविताएँ
माँ की व्यथा
मेरी व्यथा
अनकही सही
अनजानी नहीं है
मुझ जैसी
हज़ारों नारियों की
कहानी यही है

जन्म से ही
खुद को
अबला जाना
जीवन के हर मोड़ पर
परिजनों ने ही
हेय माना

थी कितनी प्रफुल्लित मैं
उस अनूठे अहसास से
रच बस रहा था जब
एक नन्हा अस्तित्व
मेरी सांसों की तार में
प्रकृति के हर स्वर में
नया संगीत सुन रही थी
अपनी ही धुन में
न जाने कितने
स्वप्न बुन रही थी

लम्बी अमावस के बाद
पूर्णिमा का चाँद आया
एक नन्हीं सी कली ने
मेरे आंगन को सजाया

आए सभी मित्रगण, सम्बन्धी
कुछ के चहरे थे लटके
तो कुछ के नेत्रों में
आंसू थे अटके
भांति भांति से
सभी समझाते
कभी देते सांत्वना
तो कभी पीठ थपथपाते
कुछ ने तो दबे शब्दों में
यह भी कह डाला
घबराओ नहीं, खुलेगा कभी
तुम्हारी किस्मत का भी ताला

लुप्त हुआ गौरव
खो गया आनन्द
अनजानी पीड़ा से यह सोचकर
बोझिल हुआ मन
क्या हुआ अपराध
जो ये सब मुझे कोसते हैं
दबे शब्दों में
मन की कटुता में
मिश्री घोलते हैं

काश! ममता में होता साहस
माँ की व्यथा को शब्द मिल जाते
चीखकर मेरी नन्हीं कली का
सबसे परिचय यूँ कराते
न इसे हेय, न अबला जानो
'खिलने दो खुशबू पहचानो'
- दीपा जोशी
Deepa Joshi
Email : [email protected]
Deepa Joshi
Email : dineshdeepa <at> yahoo.com
विषय:
स्त्री (17)

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जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊँचाइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
..

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कहते हैं सब लोग तोंद एक रोग बड़ा है
तोंद घटाएँ सभी चलन यह खूब चला है।
पर मानो यदि बात तोंद क्यों करनी कम है
सुख शान्ति सम्मान दायिनी तोंद में दम है।

औरों की क्या कहूं, मैं अपनी बात बताता
बचपन से ही रहा तोंद से सुखमय नाता।
जिससे भी की बात, अदब आँखों में पाया
नाम न लें गुरु, यार, मैं पंडित 'जी' कहलाया।

आज भी ऑफिस तक में तोंद से मान है मिलता
कितना भी हो बॉस शीर्ष, शुक्ला 'जी' कहता।
मान का यह
..

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जिस पर पंछी घर कर लें वो ठाँव कहाँ से लाओगे?
बालकनी में बंध पाया क्या, बरगद का ..

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