अप्रतिम कविताएँ
कुछ नहीं हिला उस दिन
कुछ नहीं हिला उस दिन
न पल न प्रहर न दिन न रात

सब निश्छल खड़े रहे
ताकते हुए अस्पताल के परदे
और दरवाजे और खिड़कियाँ
और आती-जाती लड़कियाँ
जिन्हे मैं सिस्टर नहीं कहना चाहता था
कहना ही पड़ता था तो पुकारता था बेटी कहकर

और दूसरे दिन जब हिले
पल और प्रहर और दिन और रात
तब सब एक साथ बदल गये मान
अस्पताल के परदे और दरवाजे
और खिड़कियाँ और
कमरे में आती-जाती लड़कियाँ
सिरहाने खड़ी मेरी पत्नी
पायताने बैठा मेरा बेटा
अब तक की गुमसुम मेरी लड़की
और बाहर के तमाम झाड़
शरीर के भीतर की नसें
मन के भीतर के पहाड़

ऐसा होता है समय कभी कितना सोता है
कभी कितना जागता है
लगता है कभी कितना हो गया है स्थिर
कभी कितना भागता है!
- भवानीप्रसाद मिश्र
साहित्य अकादेमी पुरस्कृत संकलन "बुनी हुई रस्सी" से

एमज़ोन पर उपलब्ध

काव्यालय पर प्रकाशित: 3 May 2019

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हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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