अप्रतिम कविताएँ
चिकने लम्बे केश
चिकने लम्बे केश
काली चमकीली आँखें
खिलते हुए फूल के जैसा रंग शरीर का
फूलों ही जैसी सुगन्ध शरीर की
समयों के अन्तराल चीरती हुई
अधीरता इच्छा की
याद आती हैं ये सब बातें
अधैर्य नहीं जागता मगर अब
इन सबके याद आने पर

न जागता है कोई पश्चाताप
जीर्णता के जीतने का
शरीर के इस या उस वसन्त के बीतने का

दुःख नहीं होता
उलटे एक परिपूर्णता-सी
मन में उतरती है

जैसे मौसम के बीत जाने पर
दुःख नहीं होता
उस मौसम के फूलों का !
- भवानीप्रसाद मिश्र
साहित्य अकादेमी पुरस्कृत संकलन "बुनी हुई रस्सी" से

एमज़ोन पर उपलब्ध

काव्यालय पर प्रकाशित: 17 May 2019

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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