अप्रतिम कविताएँ
जन गण मन
गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर भारत के बँगला साहित्य के शिरोमणि कवि थे.
उनकी कविता में प्रकृति के सौंदर्य और कोमलतम मानवीय भावनाओं का उत्कृष्ट चित्रण है.
"जन गण मन" उनकी रचित एक विशिष्ट कविता है जिसके प्रथम छंद को हमारे राष्ट्रीय गीत होने का गौरव प्राप्त है.
गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर, काव्यालय की ओर से, आप सबको यह कविता अपने मूल बंगला रूप में प्रस्तुत है.

बंगला मूल

जन गण मन

शब्दार्थ


जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मागे
गाहे तव जय गाथा
जन गण मंगल दायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे

अहरह तव आह्वान प्रचारित
शुनि तव उदार वाणी
हिन्दु बौद्ध शिख जैन
पारसिक मुसलमान खृष्टानी
पूरब पश्चिम आशे
तव सिंहासन पाशे
प्रेमहार हय गाँथा
जन गण ऐक्य विधायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे

अहरह: निरन्तर; तव: तुम्हारा
शुनि: सुनकर


आशे: आते हैं
पाशे: पास में
हय गाँथा: गुँथता है
ऐक्य: एकता

पतन-अभ्युदय-बन्धुर-पंथा
युगयुग धावित यात्री,
हे चिर-सारथी,
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माझे
तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुख-त्राता,
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे

अभ्युदय: उत्थान; बन्धुर: मित्र का
धावित: दौड़ते हैं


माझे: बीच में

त्राता: जो मुक्ति दिलाए
परिचायक: जो परिचय कराता है

घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथे
पीड़ित मुर्च्छित-देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल
नत-नयने अनिमेष
दुःस्वप्ने आतंके
रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता,
जन-गण-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे

निविड़: घोंसला

छिल: था
अनिमेष: अपलक

करिले: किया; अंके: गोद में

रात्रि प्रभातिल उदिल रविछवि
पूर्व-उदय-गिरि-भाले,
गाहे विहन्गम, पुण्य समीरण
नव-जीवन-रस ढाले,
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा,
जय जय जय हे, जय राजेश्वर,
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे

- रवीन्द्रनाथ ठाकुर

प्रभातिल: प्रभात में बदला; उदिल: उदय हुआ

- रवीन्द्रनाथ टगोर

***
रवीन्द्रनाथ टगोर
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इन दर्पणों में देखा तो
~ वाणी मुरारका

वर्षों पहले यहाँ कुछ लोग रहते थे। उन्होंने कुछ कृतियां रचीं, जिन्हें 'वेद' कहते हैं। वेद हमारी धरोहर हैं, पर उनके विषय में मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती हूँ। जो जानती हूँ वह शून्य के बराबर है।

फिर एक व्यक्ति ने, अमृत खरे ने, मेरे सामने कुछ दर्पण खड़े कर दिए। उन दर्पणों में वेद की कृतियाँ एक अलग रूप में दिखती हैं, जिसे ग्रहण कर सकती हूँ, जो अपने में सरस और कोमल हैं। पर उससे भी महत्वपूर्ण, अमृत खरे ने जो दर्पण खड़े किए हैं उनमें मैं उन लोगों को देख सकती हूँ जो कोटि-कोटि वर्षों पहले यहाँ रहा करते थे। ये दर्पण वेद की ऋचाओं के काव्यानुवाद हैं, और इनका संकलन है 'श्रुतिछंदा'।

"श्रुतिछंदा" में मुझे दिखती है ...

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