अप्रतिम कविताएँ
क्षुद्र की महिमा
शुद्ध सोना क्यों बनाया, प्रभु, मुझे तुमने,
कुछ मिलावट चाहिए गलहार होने के लिए।
       जो मिला तुममें भला क्या
       भिन्नता का स्वाद जाने,
       जो नियम में बंध गया
       वह क्या भला अपवाद जाने!
जो रहा समकक्ष, करुणा की मिली कब छांह उसको
कुछ गिरावट चाहिए, उद्धार होने के लिए।
       जो अजन्मा है, उन्हें इस
       इंद्रधनुषी विश्व से संबंध क्या!
       जो न पीड़ा झेल पाये स्वयं,
       दूसरों के लिए उनको द्वंद्व क्या!
एक स्रष्टा शून्य को श्रृंगार सकता है
मोह कुछ तो चाहिए, साकार होने के लिए!
       क्या निदाघ नहीं प्रवासी बादलों से
       खींच सावन धार लाता है!
       निर्झरों के पत्थरों पर गीत लिक्खे
       क्या नहीं फेनिल, मधुर संघर्ष गाता है!
है अभाव जहाँ, वहीं है भाव दुर्लभ -
कुछ विकर्षण चाहिए ही, प्यार होने के लिए!
       वाद्य यंत्र न दृष्टि पथ, पर हो,
       मधुर झंकार लगती और भी!
       विरह के मधुवन सरीखे दीखते
       हैं क्षणिक सहवास वाले ठौर भी!
साथ रहने पर नहीं होती सही पहचान!
चाहिए दूरी तनिक, अधिकार होने के लिए!
- श्यामनंदन किशोर
निदाघ : गरमी; वाद्य यंत्र : संगीत का बाजा
विषय:
अध्यात्म दर्शन (36)

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इस महीने :
'तुम्हारे साथ रहकर'
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने
..

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इस महीने :
'हमारी सहयात्रा'
ज्योत्सना मिश्रा


कभी-कभी जीवन कोई घोषणा नहीं करता—
वह बस बहता है,
जैसे कोई पुराना राग,
धीरे-धीरे आत्मा में उतरता हुआ,
बिना शोर, बिना आग्रह।

हमारे साथ के तीस वर्ष पूर्ण हुए हैं।
कभी लगता है हमने समय को जिया,
कभी लगता है समय ने हमें तराशा।
यह साथ केवल वर्ष नहीं थे—
यह दो आत्माओं का मौन संवाद था,
जो शब्दों से परे,
पर भावों से भरपूर रहा।

जब हमने साथ चलना शुरू किया,
तुम थे स्वप्नद्रष्टा—
शब्दों के जादूगर,
भविष्य के रंगीन रेखाचित्रों में डूबे हुए।
और मैं…
मैं थी वह ज़मीन
..

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इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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