शब्दों की चाबी

वाणी मुरारका

इन दिनों मुझे शब्दों में एक अलग प्रकार की रुचि हो गई है। शब्दों के विषय में विस्मित होने, उनमें निहित गहरे अर्थ को महसूस करने की रुचि।

अधिकतर शब्दों का एक आमतौर पर समझ में आने वाला अर्थ होता है। मगर साधारण सरल शब्दों को भी ज़रा और ध्यान से देखें तो उनके गहरे अर्थ को हम देख पाते हैं। अब यही देख लीजिए, अगर शब्द के अर्थ को समझ लें तो इसका मतलब है कि उस शब्द में छिपे धन को पा लिया। अर्थ यानी मायने भी और अर्थ यानी धन भी!


"स्वस्थ"


शब्दों में मेरी ऐसी रुचि इस शब्द से आरम्भ हुई: “स्वस्थ”।

इसकी शुरुआत हुई मेरे व्यक्तिगत जीवन के एक विशेष मोड़ पर। मैं बहुत बीमार थी और कई महीनों तक जिन्दगी के सब कार्य छोड़ कर एकदम पराश्रित अवस्था में अपने माता-पिता के घर में थी। उन्ही दिनों एक दिन पापा मेरे पास बैठे थे और किसी प्रकार से ये बात चली। पापा ने कहा “स्वस्थ होना क्या है? जो "स्वयं में स्थित" है, वह स्वस्थ (स्व+स्थ)"। इस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मैंने पाया है कि इस बात में अनन्त सच्चाई है। ज़िन्दगी के हर स्तर पर - शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक। वास्तव में असली स्वास्थ्य स्वयं में स्थित होने से ही प्राप्त होता है। इस एक शब्द से तो मेरी एक पूरी खोज आरम्भ हो गई, बल्कि ज़िन्दगी की यही एकमात्र खोज है कि कैसे पूर्णत: स्वयं में स्थित हो सकूँ।

विश्व में बार बार अलग अलग ढंग से यह पाया गया है कि रोग का सच्चा उपचार तब होता है जब इंसान के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सब स्तरों के रोग का उपचार हो। हमारे अंदर मानसिक, भावनात्मक गांठ ही शारीरिक अथवा मानसिक रोग का रूप लेती है। अपने निजी स्वास्थ्य की समस्या को गहराई से देखने के प्रयास से मैंने जाना है कि यह बात बिल्कुल सच है। यह गांठ हमें अपने असली पूर्ण रूप से दूर रखती हैं। जैसे जैसे हम स्वयं को जान पाते हैं और अपने अन्दर की गांठों को खोल पाते हैं, हम रोग मुक्त होते चले जाते हैं। योगाभ्यास के द्वारा आरोग्य प्राप्त करने में भी मूलत: यही एक बात है।

मुझे यह सोच कर बहुत आश्चर्य महसूस होता है कि यह सच्चाई, इतना बड़ा ज्ञान, इस एक शब्द में छिपा है: “स्वस्थ”। जो स्वयं में स्थित है वह स्वस्थ। मतलब कि अगर तुम अस्वस्थ हो तो तुम स्वयं में स्थित नहीं हो।

स्वास्थ्य सिर्फ शारीरिक नहीं होता। ज़िन्दगी के किसी भी पहलू में हमें यदि तनाव महसूस होता है, वही रोग है। लगभग हम सभी किसी न किसी स्तर पर रिश्तों में तनाव महसूस करते है। इस रोग के निवारण की चाबी भी इसी शब्द में है: स्वस्थ।

रिश्तों में हमारी प्रवृत्ति यह होती है कि हम दूसरे पर ध्यान केन्द्रित करते हैं - उसे क्या करना चाहिए, क्या कहना चाहिए, कैसे कहना चाहिए। बिना जागरूकता के हमें दूसरे व्यक्ति से विभिन्न अपेक्षाएं होती हैं। इस प्रवृत्ति के कारण हमें विभिन्न मानसिक पीड़ाएं झेलनी पड़ती हैं। अगर हम स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करें - मैं इस वक्त क्या महसूस कर रही हूँ? मेरी क्या आवश्यकता है? मेरे विचार क्या हैं? मेरा स्वयं के प्रति क्या आचरण है? मुझमें जो भावनाएं उमड़ रहीं हैं उनकी जड़ क्या है? स्वयं में भावनात्मक और विचारात्मक रूप से, जागरूकता के साथ स्थित होने पर यह सवाल और उनके जवाब, दोनों ही स्वत: हम में उभरते हैं। हम परत पर परत अपने आचरण को, विचारों को, दर्द को, क्षमताओं व कमज़ोरियों को समझ पाते हैं। यह जान पाते हैं कि हम अपने में क्या बदलाव ला सकते हैं जिससे कि हम स्थाई खुशी की ओर अग्रसर हो सकें। यह एक अत्यन्त विश्लेषणात्मक क्रिया होती है मगर यह विश्लेषण करने से नहीं होती, होने से होती है!

इस प्रकार से स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करने में दूसरे व्यक्ति की अवहेलना नहीं होती है। बल्कि हमारा साथी जैसा है उसे अपनाने में हम अधिक सक्षम होते हैं। अपनी ज़रूरतों को भी हम स्पष्ट रूप से व्यक्त कर पाते है, बजाए इसके कि अपने साथी से अव्यक्त अपेक्षाएं रखें। स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करने से सभी प्रकार के रिश्तों में गहरा सुधार आता है। ऐसा नज़रिया रखना प्रारम्भ में अत्यन्त कष्टकर होता है, पर धीरे धीरे हम अपने अन्दर के तनाव से जड़ से मुक्त होते हैं।

इस समस्त ज्ञान की चाबी एक शब्द में: "स्वस्थ"!


"वि"


इसी प्रकार से "वि" उपसर्ग (prefix) मुझे बड़ा जादुई लगता है। किसी शब्द के आगे "वि" जोड़ने से शब्द का अर्थ या तो उल्टा हो सकता है, विपरीत (opposite), या परिवर्धित हो सकता है, विशेष (amplified)। जैसे कि "विमल" - मल अर्थात मैल, विमल अर्थात स्वच्छ (विपरीत)। उसी प्रकार से, परिवर्धन का एक उदाहरण -"विनाश" अर्थात भयंकर नाश। मम्मी ने इसे संस्कृत में इस प्रकार व्यक्त किया है: “उपसर्ग ’वि’ निम्नार्थे, उच्चार्थे च युज्यते” – उपसर्ग “वि” अर्थ को नीचा और ऊँचा करने में जोड़ा जाता है।

इस "वि" उपसर्ग को गणित की संख्या रेखा की दृष्टि से देखें। संख्या रेखा के बीच में शून्य होता है, दाहिनी ओर धनांक (positive numbers) और बायीं ओर ऋणांक (negative numbers) होते हैं| वि उपसर्ग का विपरीतार्थक असर लगता है जैसे विपरीत दिशा में, यानी बाईं (negative) दिशा में जा रहे है। वि उपसर्ग से अर्थ का परिवर्धन हो तो लगता है जैसे सांख्य रेखा पर दाहिने ओर, positive की दिशा में, बढ़होतरी की ओर जा रहे हैं। जब दोनों ही "वि" उपसर्ग से व्यक्त किया जाता है तो क्या दोनों, positive और negative इतने अलग हैं जितना कि हम उसे आमतौर पर सोचते हैं? एसा महसूस होता है कि अगर दोनों में से किसी भी दिशा में चलते जाएं तो किसी एक बिन्दु पर, किसी एक क्षण में, यह अन्तर लुप्त हो जाएगा और हम पाएंगे कि दोनों एक ही है। हां कई आध्यात्मिक ग्रंथों में यही कहा गया है - कि हम उस बिन्दु को तब पाते हैं जब जीवन के समस्त स्तरों पर दिखने वाले द्विविधता (duality) को एक जान लेते हैं - सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान, लाभ-हानि।

वि उपसर्ग का यह असर सबसे ज़्यादा मैं “वियोग” शब्द से महसूस करती हूँ। योग मतलब जुड़ना, एक होना। तो वियोग उसका विपरीत, अलगाव। मगर फिर उस अलगाव में ही, वियोग से ही, जिससे हम लगाव की इच्छा रखते हैं उसके संग एक विशेष लगाव को जान पाते हैं, उसे हम एक अलग आयाम में अपने संग पाते हैं। वियोग में एक वक्त आता है जब अलगाव एक विशेष योग में परिवर्तित हो जाता है।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि “वि” उपसर्ग का यह हमें संदेश है कि संसार में नज़र आने वाली द्विविधता वास्तव में एक ही है।


"सहना"


अब चलते हैं एक और साधारण शब्द की ओर: "सहना"। दर्द सहना, पीड़ा सहना। क्या है इस शब्द का असली अर्थ? बहुत आसान शब्द है और लगता है कि हम सब इसके मायने जानते हैं। मगर थोड़ी और गहराई से देखते हैं।

सहना, सहो, यह क्रिया शब्द हैं, अर्थात सहने में हमें कुछ करना है। पर अगर हमसे कोई कहे "सहो", तो हमें करना क्या है? सह माने साथ। अत:, सहो माने "साथो" अर्थात "साथ रहो", सहना माने "साथना" अर्थात "साथ रहना""। उस एहसास के साथ रहना। इसमें कोई शहीद की तरह कष्ट झेलने की बात नहीं है। न कुछ अच्छा लगने की बात है, न कुछ बुरा लगने की। एक स्पष्ट सरल बात है - बस साथ रहो, उस दर्द के साथ, पीड़ा के साथ रहो। जब हम सच में अपने एहसास के साथ बस बैठते हैं, न तो उससे छुटकारा पाने को छटपटाते हैं और न ही उसे गले लगाते हैं, बस सिर्फ साथ बैठते हैं, तब वही एहसास रंग बदल कर हमें दिखाई देता है। उसमें निहित किसी धन को हम प्राप्त करते हैं। बल्कि जब उसे भगा देने की कोशिश करते हैं तो असल में उसे जकड़ कर गले ही लगा रहे होते हैं! इस सहने में महसूस करना ही नहीं होता है, मगर एक और सूक्ष्म बात होती है, देखने की बात - जो कि कुछ दूरी बनाए रखने से ही होती है।

दर्द के साथ इस प्रकार से रहने से हमें नज़र आता है कि जो हमें दर्द लग रहा था वह वास्तव में मात्र विभिन्न छोटी छोटी अनुभूतियों की एक लड़ी है, और हर एक अनुभूति अपने में कष्टकर नहीं है! फिर इस सहने की क्रिया से हम यह जान पाते हैं कि सिर्फ वह दर्द ही हम नहीं हैं, उस दर्द के दौरान भी उसके परे हमारा एक अस्तित्व है, जो कायम है। चाहे वह दर्द कितना ही भयंकर क्यों न हो। दर्द को सच्चे अर्थों में सहने की यह एक विशेष उपलब्धि है। यह उपलब्धि तब नहीं होती है जब हम घबड़ा कर दर्द को दूर करने की कोशिश करते है।

मानसिक अथवा भावनात्मक दर्द की अपेक्षा, शारीरिक दर्द को इस प्रकार से सहना ज़्यादा सरल है। अगर हम शारीरिक दर्द को इस प्रकार से सहें, तब उस अनुभव के ज़रिए हमें मानसिक दर्द को भी इस प्रकार से सहने की शक्ति मिलती है। फिर भी दर्द हमारे सम्मुख जिस भी रूप में आए, उसके संग बैठने में, उसे देखने में बड़ा लाभ है।

इस प्रकार से शब्दों में छिपि निधियां सिर्फ हिन्दी के शब्दों में ही नहीं हैं शायद। उदाहरण के तौर पर, "सहना" के संदर्भ में, suffer शब्द का पुराना अर्थ था to allow. Bible में एक जगह क्राइस्ट कहते हैं "suffer the little children unto me." उनका अभिप्राय था "allow the little children to come to me." पहले तो suffer का अर्थ allow होने पर, “सहो” शब्द के संदेश से कितना मिलता है। उसपर "allow the little children to come to me." का अन्दरूनी संदेश मुझे यह लगता है: हम सबके अन्दर एक मासूम शिशु है, चाहे हमारी उम्र जो भी हो। ज़िन्दगी के जो भी छोटे बड़े आघात होते हैं उससे हमारा शिशु-मन ही आहत होता है। मेरे विचार में क्राइस्ट की इस बात से उनका तात्पर्य है कि हम अपने अन्दर के मासूम, आहत शिशु को पहचानें और उस आहत शिशु को ईश्वर की गोद में रख दें। वे बुला रहे हैं उस शिशु को, जिससे कि वह उसे अपार प्रेम दें सकें, और उसके मन में दर्द रूपी जो विष छिपा है, उसका पान कर हमें दर्द-मुक्त कर सकें।

खैर, मेरी बात सिर्फ इतनी है कि एक साधारण शब्द के अन्दर झांक कर देखने से लगता है कि जीवन जीने के लिए जो ज्ञान हमें चाहिए वह बस उस साधारण शब्द में ही पूरी तरह से अभिव्यक्त है।

लगता है इसी प्रकार से कई साधारण शब्दों में अपार निधियां छिपी हुईं हैं: स्वाद, जल, जन, हर ...

मेरा मन कहता है कि यह बात हर एक शब्द पर लागू है। हर शब्द मानों एक पिटारी है। उसे खोलो तो अनमोल खजाना मिलेगा, और उस पिटारी को खोलने की चाबी स्वयं वह शब्द ही है। सामने पड़ा है हम सब के। जो जी चाहे उस खजाने को प्राप्त कर ले! बस दो क्षण रुक कर देखने की देर है।

धन्यवाद

काव्यालय को प्राप्त : 9 जुलाई 2018; काव्यालय पर प्रकाशित: 26 मई 2023


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वाणी मुरारका
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