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धीरे-धीरे
एहसासों की लड़ी है
ये ज़िन्दगी।
धीरे-धीरे आगे बढ़ती हूँ ―
एक एक एहसास को
सहेज कर,
समेट कर,
रखती हूँ।
वक्त लगता है।
कमरा बिखरा रह जाता है।
-
वाणी मुरारका
Vani Murarka
[email protected]
काव्यालय को प्राप्त: 22 Dec 2017. काव्यालय पर प्रकाशित: 9 Dec 2022
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झोंके हजारों हवाओं की मैं
चमक हीरों-सी हिमकणों की मैं
शरद की गिरती फुहारों में हूँ
फसलों पर पड़ती...
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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