अप्रतिम कविताएँ
धूप
घाटियों में ऋतु सुखाने लगी है
मेघ धोये वस्त्र अनगिन रंग के
आ गए दिन, धूप के सत्संग के।

पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं
लौटकर जाती घटाओं ने।
पेड़, फिर पढ़ने लगे हैं, धूप के अख़बार
फ़ुरसत से दिशाओं में।
निकल, फूलों के नशीले बार से
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो, पड़ते नहीं हैं ढंग के।

बँध न पाई, निर्झरों की बाँह, उफनाई नदी
तटों से मुँह जोड़ बतियाने लगी है।
निकल जंगल की भुजाओं से, एक आदिम गंध
आँगन की तरफ आने लगी है।

आँख में आकाश की चुभने लगे हैं
दृश्य शीतल, नेह-देह प्रसंग के।
आ गए दिन, धूप के सत्संग के।
- विनोद निगम
Poet's Address: Sanichara, Hoshangabad, M.P
Ref: Naye Purane, April,1998

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इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

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इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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