अप्रतिम कविताएँ

प्रणाम
क्या है ऐसा तुममें
कि देखते ही मुँद जाती हैं आँखे
और बजने लगता है
श्रद्धा का मौलिक अर्थ

क्या उस पार उड़ाये
लाल अबीर की बची परागधूलि की लालिमा
जो छाई क्षितिज की गोद में
करुणा बन पुकारती सुबह-सुबह?

या पीतिमा
जो मढ़ रही तुम्हारे अन्तस तेज पर सोना
जैसे ठठेरे ने अभी-अभी की हो पीतल की कलई
चमकते धातु के गोल बरतन पर?

या पालने हमें
पिता की तरह सुबह निकलने, शाम लौटने की
तुम्हारी दृढ़ दिनचर्या?

उम्मीद, विश्वास, परिवर्तन
अन्दर उढ़ेलते-से तुम उग आते हो
जगाते भरोसा
कि मिलेगी असहमति को जगह
सामंजस्य को धरती

चरम से पहले टूटेगा अँधेरा
फैलते दूध से उजाले में
एक हो जायेगी खीर, सेवई

तमस केन्द्रों पर पड़ता तुम्हारे तेज का प्रहार
होते बरबस कर बद्ध
हे ऊर्जा के आदि अन्त
प्रणाम।
- प्रकाश देवकुलिश
काव्यपाठ: प्रकाश देवकुलिश
परागधूलि : फूलों के लम्बे केसरों पर कण, pollen; पीतिमा : पीलापन; ठठेरा : जो धातु पीट कर बर्तन बनाता है; कलई : रांगा (टिन) की परत चढ़ाना ; कर बद्ध : जुड़े हाथ (प्रणाम में)

काव्यालय को प्राप्त: 3 Apr 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 15 Apr 2022

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 जीवन की करो गिनती
 दरख़्त-सी कविता
 प्रणाम
 वो हवा वहीं ठहरी है
इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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