अप्रतिम कविताएँ

मेरी कविताएँ

इराक में बम फटने के कुछ घंटों बाद एक सेल्लो वादक ने विध्वंसता के बीच बैठ अपने संगीत का सौंदर्य फैला आतंक और नाश का सामना किया| प्रतिकूल वातावरण में भी सौन्दर्य ही रचने का संकल्प, क्योंकि सौन्दर्य की अपनी एक दर्द निवारण शक्ति होती है|

सोचा था मैंने
अब नहीं लिखूँगा कविताएँ
टूटन की, घुटन की
लावारिस आँखों के सपनों की
सामाजिक विवशताओं की
जलती हुई हसरतों की
बुझते हुए विश्वास की
अब नहीं लिखूँगा कविताएँ |
चुनूँगा शब्द व्योम से,
प्रकृति से, सागर से, तरु से, मरु से
सूरज के गाँव बैठ
गढूगाँ----
मनोहारी मेहँदी-रचे शब्द-चित्र
चाँद की शीतलता से युक्त
जीवन सौंदर्य की परिभाषाएँ
वैसी ही होगी मेरी कविताएँ |
आकाश में उमड़ते-घुमड़ते
काले-काले बादल
कौंधती बिजलियाँ
नव युगल के कोमल तन पर
रिमझिम गिरती फुहारें
तरु की डाली में उगते नए कोमल कोंपल
हल्के जाड़े की मधुर सिहरन
धुँध छटे दिन में
चिड़ियों का नीचे उतर
दाना चुगना,
गर्मी के दिनों में
समुन्दर में नहाना
कितनी जीवन्त होंगी ये कविताएँ
ऐसी ही होगी मेरी कविताएँ |
भावनाएँ आतुर हो चली
लगा मैं मौसम को बदल दूँगा
मन पर लग रही
अविश्वास, अनैतिकता और
स्वार्थपरता की काई को
खुरच-खुरच कर दूर कर दूँगा
मवाद भरे जख्मों पर
ठंढे चन्दन का लेप दूँगा
थाप और ताल पर
नाचेगा यौवन
सुर के आगोश में ;
फुदक-फुदक गौरेये-सा
जन-मन को आह्लादित करेंगी मेरी कविताएँ
जनहिताय होगी मेरी कविताएँ |
किन्तु कहाँ ?
टूटती ही जा रही
विश्वास से घनिष्टता
है हादसों और दंगों से भरी
खबर सुनने की विवशता
बंटती जागीर ही नहीं
प्यार भी है बँट रहा
वह आँसू नहीं खून था
पीती जो रही है माँ की ममता
बारूद की गंध में बैठकर
चीखों और घबराहटो के बीच
कैसे लिखी जा सकेंगी
कोमल-स्पर्श की कविताएँ ?
अलगाव, आतंक, घोटाला
क्षत-विक्षत पहचान और दमन का बोलबाला ;
बढ़ाएँगी सिसकती शक्तियों का हौसला
छोटे से हृदय में
प्यार के कुछ शब्द लेकर
द्वार-द्वार घूमेंगी मेरी कविताएँ
हाँ, वैसी ही होगी मेरी कविताएँ |
- गोपाल गुंजन
Gopal Gunjan: [email protected]

काव्यालय पर प्रकाशित: 2 Sep 2016

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'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

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'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

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'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

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इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

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