अप्रतिम कविताएँ
काश़
ना समझ सका
मैं खुद जिसको
अधखुला राज़
अनकही बात
मैं काश़ तुम्हे समझा पाता

तेरी नज़रों के
दो सवाल
दो प्रश्नचिन्ह
जिनके जवाब
मैं काश़ कभी लौटा पाता

कच्चे धागे
इन सपनों के
उलझे उलझे
सुलगे सुलगे
मैं काश़ कभी सुलझा पाता

जुगनू बिखराती
चाँद रात
हाथों में हाथ
दो पल का साथ
मैं काश कभी दोहरा पाता

ख़्वाबों से महकी
सरज़मीं
वो दिलनशीं
कितनी हसीं
मैं काश तुम्हे दिखला पाता

वो गया मोड़
हम साथ छोड़
हैं अलग अलग
इक कड़वा सच
मैं काश इसे झुठला पाता
- कमलेश पाण्डे 'शज़र'
Kamlesh Pandey
Email : [email protected]
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कमलेश पाण्डे 'शज़र'
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 काश़
 यूँ छेड़ कर धुन
इस महीने :
'अभिसार'
रवीन्द्रनाथ टगोर


एक बार की है यह बात, बड़ी अँधेरी थी वह रात,
चाँद मलिन और लुप्त थे तारे, मेघ पाश में सुप्त थे सारे,

पवन बहा फिर अमोघ अचूक, घर घर की बाती को फूंक,
गहन निशा बंद घरों के द्वार, स्तब्ध था मानो संसार।

ऐसी एक श्रावण रजनी में, अति प्राचीन मथुरा नगरी में,
प्राचीर तले अति श्रांत शुद्धचित्त, संन्यासी उपगुप्त थे निद्रित।

सहसा नूपुर ध्वनि ज्यों निर्झर, कोमल चरण पड़े जो उर पर,
चौंके साधक टूटी निद्रा, छूट गयी आँखों से तन्द्रा।
..

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पुस्तक में चित्र तो बहुत देखे हैं, पर पुस्तक में वीडियो?? ऑनलाइन पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में यह काव्यालय की अभिनव पहल है।

ये पंक्तियाँ विनोद तिवारी के व्यक्तित्व का सार हैं‌ -- प्रकृति के रहस्यों को बेनक़ाब करने की एक वैज्ञानिक की ललक, दिलेरी, और कवि-मन की कोमलता और रूमानियत। साथ ही ये पंक्तियाँ इस पूरी पुस्तक के चमन में आपको आमंत्रित भी कर रही हैं।

इस महीने :
'जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे'
विनोद कुमार शुक्ल


जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।

एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा

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