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तुम
एक ख़्वाब की नदी सी
मुझमें जो बहती हो
अलसाए दिन ढ़ोते हैं
उनींदी रातों को
मैं जानता नहीं ये क्या है
मैं सोचता नहीं ये क्यों है
हर बार तुम्हे मिटाता हूँ
हर बार तुम बन जाती हो
एक ख़्वाब की नदी सी ...
- जितेन्द्र दवे
Jitendra Dave
email:
[email protected]
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इस महीने :
'ओ माँ बयार'
शान्ति मेहरोत्रा
सूरज को, कच्ची नींद से
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दूध-मुँहे बालक-सा
दिन भर झुंझलायेगा
मचलेगा, अलसायेगा
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आदत बुरी है यह
..
पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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जी उठे दृश्य
मनोरम गांवों के !!
..
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इस महीने :
'पिता: वह क्यों नहीं रुके'
ब्रज श्रीवास्तव
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तुम्हारे लिए, तुम्हारे पिता जैसे नहीं हैं,
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बिल्कुल, बिल्कुल करीब हो जाता हूँ
अपने ही
तब भी
..
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वार्षिक रिपोर्ट
अप्रैल 2023 – मार्च 2024
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