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सोच में सीलन बहुत है
सोच में सीलन बहुत है
सड़ रही है,
धूप तो दिखलाइये
है फ़क़त उनको हि डर
बीमारियों का
जिन्हें माफ़िक हैं नहीं
बदली हवाएँ
बंद हैं सब खिड़कियाँ
जिनके घरों की
जो नहीं सुन सके मौसम
की सदाएँ
लाज़मी ही था बदलना
जीर्ण गत का
लाख अब झुंझलाइए
जड़ अगर आहत हुआ है
चेतना से,
ग़ैरमुमकिन, चेतना भी
जड़ बनेगी
है बहुत अँधियार को डर
रोशनी से,
किंतु तय है रोशनी
यूँ ही रहेगी
क्यों भला भयभीत है पिंजरा
परों से
साफ़ तो बतलाइए
कीच से लिपटे हुए है
तर्क सारे
आप पर, माला बनाकर
जापते हैं
और ज्यादा नग्न
होते है इरादे
जब अनर्गल शब्द उन पर
ढाँकते हैं
हैं स्वयं दलदल कि दलदल
में धंसे हैं
गौर तो फरमाइए
-
सीमा अग्रवाल
Email:
[email protected]
विषय:
समाज (31)
काव्यालय को प्राप्त: 6 Jan 2017. काव्यालय पर प्रकाशित: 31 Aug 2017
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इस महीने :
'पेड़ों का अंतर्मन'
हेमंत देवलेकर
कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है
खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं
मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
..
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इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष
जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते
हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता
इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें
..
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इस महीने :
'एक मनःस्थिति '
शान्ति मेहरोत्रा
कभी-कभी लगता है
जैसे घर की पक्की छत, दीवारें, चौखटें
मेरी गरम साँसों से पिघल कर
मोम-सी बह गई हैं।
केवल ये खिड़कियाँ-दरवाजे जैसे
कभी ..
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इस महीने :
'खिलौने की चाबी'
नूपुर अशोक
इतनी बार भरी गई है
दुःख, तकलीफ और त्याग की चाबी
कि माँ बन चुकी है एक खिलौना
घूम रही है गोल-गोल
..
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