अप्रतिम कविताएँ
मिटकर आओ
नहीं तुम प्रवेश नहीं
कर सकते यहाँ
दरवाजे बंद हैं तुम्हारे लिए

यह खाला का घर नहीं
कि जब चाहा चले आये

पहले साबित करो खुद को
जाओ चढ़ जाओ
सामने खड़ी चोटी पर
कहीं रुकना नहीं
किसी से रास्ता मत पूछना
पानी पीने के लिए
जलाशय पर ठहरना नहीं
सावधान रहना
आगे बढ़ते हुए
फलों से लदे पेड़ देख
चखने की आतुरता में
उलझना नहीं
भूख से आकुल न हो जाना
जब शिखर बिल्कुल पास हो
तब भी फिसल सकते हो
पांव जमाकर रखना
चोटी पर पहुँच जाओ तो
नीचे हजार फुट गहरी
खाई में छलांग लगा देना
और आ जाना
दरवाजा खुला मिलेगा

या फिर अपनी आँखें
चढ़ा दो मेरे चरणों में
तुम्हारे अंतरचक्षु
खोल दूंगा मैं
अपनी जिह्वा कतर दो
अजस्र स्वाद के
स्रोत से जोड़ दूंगा तुझे
कर्णद्वय अलग कर दो
अपने शरीर से
तुम्हारे भीतर बांसुरी
बज उठेगी तत्क्षण
खींच लो अपनी खाल
भर दूंगा तुम्हें
आनंद के स्पंदनस्पर्श से

परन्तु अंदर नहीं
आ सकोगे इतने भर से
जाओ, वेदी पर रखी
तलवार उठा लो
अपना सर काटकर
ले आओ अपनी हथेली
पर सम्हाले
दरवाजा खुला मिलेगा

यह प्रेम का घर है
यहाँ शीश उतारे बिना
कोई नहीं पाता प्रवेश
यहाँ इतनी जगह नहीं
कि दो समा जाएँ
आना ही है तो मिटकर आओ
दरवाजा खुला मिलेगा।
- सुभाष राय
Dr. Subhash Rai
Email: [email protected]
Dr. Subhash Rai
Email: [email protected]
विषय:
अध्यात्म दर्शन (36)

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इस महीने :
'तुम तो पहले ऐसे ना थे'
सत्या मिश्रा


तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...

स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...

बेचैनियों का कभी
..

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इस महीने :
'कुछ प्रेम कविताएँ'
प्रदीप शुक्ला


1.
प्रेम कविता, कहानियाँ और फ़िल्में
जहाँ तक ले जा सकती हैं
मैं गया हूँ उसके पार
कई बार।
इक अजीब-सी बेचैनी होती है वहाँ
जी करता है थाम लूँ कोई चीज
कोई हाथ, कोई सहारा।
मैं टिक नहीं पाता वहाँ देर तक।।

सुनो,
अबसे
..

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इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली


घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
..

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