अप्रतिम कविताएँ
मेरी ज़िद
तेरी कोशिश, चुप हो जाना,
मेरी ज़िद है, शंख बजाना ...

                   ये जो सोये, उनकी नीदें
                   सीमा से भी ज्यादा गहरी
                   अब तक जाग नहीं पाये वे
                   सर तक है आ गई दुपहरी;
                   कब से उन्हें, पुकार रहा हूँ
                   तुम भी कुछ, आवाज़ मिलाना...

तट की घेराबंदी करके
बैठे हैं सारे के सारे,
कोई मछली छूट न जाये
इसी दाँव में हैं मछुआरे.....
मैं उनको ललकार रहा हूँ,
तुम जल्दी से जाल हटाना.....

                   ये जो गलत दिशा अनुगामी
                   दौड़ रहे हैं, अंधी दौड़ें,
                   अच्छा हो कि हिम्मत करके
                   हम इनकी हठधर्मी तोड़ें.....
                   मैं आगे से रोक रहा हूँ -
                   तुम पीछे से हाँक लगाना ....
- कृष्ण वक्षी
Poet's Address: Saket, Ganj Basauda (M.P.)
Ref: Naye Purane, April 1998

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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