तुम तो पहले ऐसे न थे
रात बिरात आओगे
देर सवेर आओगे
हम नींद में रहें
आँख ना खुले
तो रूठ जाओगे...
स्वप्न में आओगे
दिवास्वप्न दिखाओगे
हम कलम उठाएँगे
तो छिप जाओगे...
बेचैनियों का कभी
स्वांग रचाओगे
धड़कने बढ़ाकर
फिर पास आओगे...
हम कौतूहल से देखें
तो मंद मुस्काओगे
कानो में फूँककर
फिर कोई मन्त्रमुग्घ माया
हौले से अपना दामन छुड़ाओगे...
तुम तो पहले ऐसे न थे
कि नींद हो स्वप्न हो या हो जागरण
चेतन अवचेतन या कोई तन्द्रिल मन
इंतज़ार हमारा न समझ पाओगे...
सुनो रतजगों में मिलो
या मिलो भोरे भोर
दिन दोपहरिया चौक चौराहा
या कोई पिछली मोड़ ...
रचा लो चाहे कोई भी स्वांग
हो जाओ चाहे अन्तर्ध्यान
ध्यान में भी तुमको पहचान लेंगे
मेरी जान तुमको जान ही लेंगे
तो क्या हुआ कि तुम पहले से नहीं
जरा से पुराने जरा नये ही सही
लुकाछिपी तुमसे खेल लेंगे
कभी विरह कभी मिलन लिखेंगे....
ना चाहो अगर तुम
तुम्हें कविता न कहेंगे
कहानी कहेंगे कहानी लिखेंगे...
कविता कहना थोड़ी छोड़ देंगे
तुमसे मिलना थोड़ी छोड़ देंगे...
काव्यालय को प्राप्त: 28 May 2025.
काव्यालय पर प्रकाशित: 12 Sep 2025