ज़िंदगी की नोटबुक
बहुत चाहा फेयर रखूँ
ज़िन्दगी की नोटबुक को
लेकिन हमेशा रफ ही पाया...
कॉपी के उन आखिरी दो पन्नों की तरह
जिन पर होते हैं हिसाब अनगिन
हिसाब बिठाने की कोशिश में
लेकिन, छूटा कोई हासिल
गुणा करते हुए, भाग ही पाया
बहुत चाहा...
दशमलव लगा जोड़े सिफर जब
अंतहीन सवाल कोई आया
प्रायिकता कोई खोजी कहीं तो
शून्य उसका हासिल ही पाया
बहुत चाहा...
सजाने को जब-जब खींची लकीरें
अनचाहे निशानों से घिरती रहीं वे
घुमाया गोलाकार रेखा को जब भी
प्रश्नचिह्न जाने क्यों उभर आया
बहुत चाहा...
केंद्र से परिधि की त्रिज्या बनी तो
व्यास कोई सामने मुस्कुराया
सूत्र ढेरों रटते रहे पर
समय पर कोई काम न आया
बहुत चाहा...
सच मानो ये उलझा है बहुत
कोशिश की लाखों
जिंदगी का गणित
मगर समझ ही न आया
बहुत चाहा फेयर रखूँ
ज़िन्दगी की नोटबुक को
लेकिन, हमेशा रफ ही पाया..
गुणा=multiply,भाग=divide, दशमलव=decimal, सिफर=zero, प्रायिकता=probability, हासिल=carry over, केंद्र=center, परिधि=circumference, त्रिज्या=radius, व्यास=diameter, सूत्र=principle
काव्यालय को प्राप्त: 30 May 2022.
काव्यालय पर प्रकाशित: 8 Jul 2022
इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।
सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !
खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..
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