सम्पूर्ण यात्रा
प्यास तो तुम्हीं बुझाओगी नदी
मैं तो सागर हूँ
प्यासा
अथाह।
तुम बहती रहो
मुझ तक आने को।
मैं तुम्हें लूँगा नदी
सम्पूर्ण।
कहना तुम पहाड़ से
अपने जिस्म पर झड़ा
सम्पूर्ण तपस्वी पराग
घोलता रहे तुममें।
तुम सूत्र नहीं हो नदी न ही सेतु
सम्पूर्ण यात्रा हो मुझ तक
जागे हुए देवताओं की चेतना हो तुम।
तुम सृजन हो
चट्टानी देह का।
प्यास तो तुम्ही बुझाओगी नदी।
मैं तो सागर हूँ
प्यासा
अथाह
इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह
युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?
हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।
किलकारी भरते
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