अप्रतिम कविताएँ

मनमीत
जब कहीं
अनजान रजनी को
ढुलकती साँझ ने
काला,
सितारों से दमकता,
शाल पश्मीना
कभी ओढ़ा दिया --
याद कितने गीत आए।
बिछड़े हुए,
कब से न जाने
मीत आए।
सच कहूँ?
इक पल ना बीता;
तुम्हारी क़सम,
तुम बहुत याद आए।

जब कहीं,
बहकी हवाओं ने
सुकोमल हाथ से,
लजती उषा को
बाज़ुओं में थाम कर,
घूंघट ज़रा सरका दिया
थरथराते ओंठ पर
स्पर्श तेरे याद आए।
गले में दो बाज़ुओं के हार की
उस याद में
ज़िंदगी की हर कसकती हार को
हम भूल आए।
- जोगेंद्र सिंह

काव्यालय को प्राप्त: 15 Aug 2019. काव्यालय पर प्रकाशित: 28 Feb 2020

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 कुहुकनि
 मनमीत
इस महीने :
'कमरे में धूप'
कुंवर नारायण


हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'खिड़की और किरण'
नूपुर अशोक


हर रोज़ की तरह
रोशनी की किरण
आज भी भागती हुई आई
उस कमरे में फुदकने के लिए
मेज़ के टुकड़े करने के लिए
पलंग पर सो रहने के लिए

भागती हुई उस किरण ने
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'किरण'
सियाराम शरण गुप्त


ज्ञात नहीं जानें किस द्वार से
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
दुस्तर-तिमिरदुर्ग-दुर्गम-विपक्ष में-
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी।
बीच से अँधेरे के
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
इस महीने :
'रोशनी'
मधुप मोहता


रात, हर रात बहुत देर गए,
तेरी खिड़की से, रोशनी छनकर,
मेरे कमरे के दरो-दीवारों पर,
जैसे दस्तक सी दिया करती है।

मैं खोल देता हूँ ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें...
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