अप्रतिम कविताएँ
लॉकडाउन और मैं
गज़ब वो दिन थे, मैदानों पर होते थे जब सारे खेल;
अब तो घर में बैठे हैं बस, सर में खूब लगाकर तेल।
पुस्तकें सारी पढ़ डाली हैं, रंग डाले हैं सारे चित्र,
धमाचौकड़ी करें भी कैसे, अब जो घर न आते मित्र।

कंप्यूटर पर क्लास है लगती, उछल-कूद भी घर के अन्दर,
घर में ऐसा बंद हुआ मैं मानो चिड़ियाघर में बन्दर!
पक्षी सारे चीं-चीं करके फुर्र-फुर्र कर उड़ जाते हैं,
देखो कैसे घूम रहे हम, कहकर मुँह चिढ़ाते हैं।

थोड़ा गुस्सा आता पर मैं घर में हाथ बँटाता हूँ।
यह सब सीखा घर बैठे-- अब खुद से ही नहाता हूँ,
कस के बाँधूँ मास्क शक्ल पर, घिस-घिस धोऊँ हाथ,
ख़त्म कोरोना को करके मैं होऊँगा आज़ाद!
- टुषी भट्टाचार्य
विषय:
बाल कविता (10)
कॉरोना और लॉक डाउन (5)

काव्यालय को प्राप्त: 4 May 2021. काव्यालय पर प्रकाशित: 2 Jul 2021

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रौशनी से नहाए इस शहर में
खुशियों की लड़ियाँ जगमगाती हैं
चीर कर गमों के अँधेरे को
जिंदगी आज फिर से मुस्कराती है।

धमाका फिर गूंजता है
पर बमों और बंदूकों का नहीं
पटाखों के साथ-साथ
गूंजती है किलकारियाँ भी।
सहमे से मुरझाए होठों पर
..

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