अप्रतिम कविताएँ
धूप का टुकड़ा
सुनो!
आज पूरे दिन मैं भागता रहा
धूप के एक टुकड़े के पीछे,
सुबह सवेरे खिड़की से झाँक रहा था
तो मैं उसे पकड़ कर बैठ गया,

मगर वह रुका नहीं वहाँ
फिर आगे बढ़ गया

मैं दूसरे कमरे में गया
कुछ देर की मोहलत दी उसने
मगर फिर निकल लिया वहाँ से
दूसरे कमरे
फिर
तीसरे कमरे
कभी घास के छोटे से हिस्से पर
कभी इस आंगन
कभी उस आंगन
आख़िर तक मैं उसका पीछा करता रहा
और वह किसी मृगतृष्णा की तरह
सुख की आस दिलाता रहा
धूप का वह नन्हा-सा टुकड़ा!
फिर इन सब के बीच कब शाम हो गई,
मैं समझ ही न पाया!
ख़ुद को समेट कर गुम हो गया धूप का टुकड़ा...
- ममता शर्मा

काव्यालय को प्राप्त: 17 Jan 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 21 Jan 2022

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अनुवाद ~ प्रियदर्शन

नेक बने मनुष्य
उदार और भला;
क्योंकि यही एक चीज़ है
जो उसे अलग करती है
उन सभी जीवित प्राणियों से
जिन्हें हम जानते हैं।

स्वागत है अपनी...

..

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होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...

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