अप्रतिम कविताएँ
धूप
घाटियों में ऋतु सुखाने लगी है
मेघ धोये वस्त्र अनगिन रंग के
आ गए दिन, धूप के सत्संग के।

पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं
लौटकर जाती घटाओं ने।
पेड़, फिर पढ़ने लगे हैं, धूप के अख़बार
फ़ुरसत से दिशाओं में।
निकल, फूलों के नशीले बार से
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो, पड़ते नहीं हैं ढंग के।

बँध न पाई, निर्झरों की बाँह, उफनाई नदी
तटों से मुँह जोड़ बतियाने लगी है।
निकल जंगल की भुजाओं से, एक आदिम गंध
आँगन की तरफ आने लगी है।

आँख में आकाश की चुभने लगे हैं
दृश्य शीतल, नेह-देह प्रसंग के।
आ गए दिन, धूप के सत्संग के।
- विनोद निगम
Poet's Address: Sanichara, Hoshangabad, M.P
Ref: Naye Purane, April,1998
विषय:
प्रकृति (40)
सूरज धूप (8)

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इस महीने :
'स्वतंत्रता का दीपक'
गोपालसिंह नेपाली


घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता-दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!
..

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इस महीने :
'युद्ध की विभीषिका'
गजेन्द्र सिंह


युद्ध अगर अनिवार्य है सोचो समरांगण का क्या होगा?
ऐसे ही चलता रहा समर तो नई फसल का क्या होगा?

हर ओर धुएँ के बादल हैं, हर ओर आग ये फैली है।
बचपन की आँखें भयाक्रान्त, खण्डहर घर, धरती मैली है।
छाया नभ में काला पतझड़, खो गया कहाँ नीला मंजर?
झरनों का गाना था कल तक, पर आज मौत की रैली है।

किलकारी भरते ..

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इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
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