अप्रतिम कविताएँ
शीत का आतंक
कटकटाती शीत में
सूर्य के सामने ही
आज फिर से
कल की तरह
पारदर्शी हिम पर्त
मेरे हृदय पर पड़ गई
और मेरे ज्ञान का सूर्य
देखने भर को विवश था।

कर भी सकता क्या भला
परतें पड़ीं जिसके ह्रदय पर
हाथ ठिठुरे
पैर ठिठुरे
आंसुओं पर भी लगा गंभीर पहरा
और मेरी इस बेबसी पर
हँस रहा था कोहरा
हो कर के दोहरा
- लक्ष्मी नारायण गुप्त

काव्यालय को प्राप्त: 10 Jan 2020. काव्यालय पर प्रकाशित: 27 Nov 2020

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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