अप्रतिम कविताएँ
मेरा अपना चाँद
चीड़ में अटका चाँद
बूँद बूँद टपका रहता है
औंधा लटका चाँद।

दुनियाभर में इसके डेरे
पखवाड़े पखवाड़े फेरे
अबकी घर मेरे रुक जाए
रस्ता भटका चाँद।

सँझा से सँवलाई छाया
बरखा में बिसराई माया
देखो कितना दु:ख सहता है
मेरा अपना चाँद।

जी करता है गले लगा लूँ
कोट के अंदर कहीं छुपा लूँ
ठंड से ठिठुर गया बेचारा
दूज का दुबला चाँद।

यारो थोड़ा हाथ लगाओ
परकोटों के पार उठाओ
गिरकर फिर से टूट न जाये
गिरता पड़ता चाँद।

मीठी बतियाँ बाँके बैन
मेरी छत पर सारी रैन
जाने किससे करता रहता
नैन मटक्का चाँद।

मन में इत्ते सपनों वाला
मद्धम मद्धम क़दमों वाला
मेरे दायें बायें चलता
मेला तकता चाँद।

उजलेपन की भाषा देखो
निखरे मन की आशा देखो
रात के रूमालों पर रौशन
कविता लिखता चाँद।

"चन्दा" उसको कहता था मैं
दिल को हारा रहता था मैं
उसके बिन किरकिरी के जैसा
आँख को खटका चाँद।

चीड़ में अटका चाँद।
- सुशोभित
[email protected]

काव्यालय को प्राप्त: 27 Nov 2022. काव्यालय पर प्रकाशित: 20 Jan 2023

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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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