अप्रतिम कविताएँ
जुगलबन्दी
जब तंत्रियों पर फिसलती छुअन
नाभि पर नाचती मिज़राब से
अभिमंत्रित कर देती सितार को
भीतर का समूचा रीतापन
भर उठता है।
रेगिस्तानी सांपों की सरसराहटों
जंगली बासों की सीटियों
बिजली की चीत्कारों
सियारों की हुआ हुआ
तने रगड़ते हाथीयों के गरजने
भैंसों के सींग भिड़ने से
फूट पड़ता है सुरों का जंगली झरना

झरने का वेग
चेहरे पर सहेजते
बांध लेते हैं तबले
समूचे जंगल को
अपनी बांहों में
सुर पार करने लगती हैं पगडंडियां
विलम्बित पर चलती
द्रुत पर दौड़ती
तोड़े की टापों टटकारती
झाले में झनकने लगतीं हैं
हवा कुछ नीचे आ ठहर जाती है
आकाश भी झांकने लगता है

किसे नहीं चाहिए खुशी
अनख रीतेपन के भराव के लिये।
- रति सक्सेना
Rati Saxena
K.P. XI/624 Vaijayant
Chettikunnu, Medical College P.O.
Thiruvananthapuram 685011
Email : [email protected]
विषय:
कामुकता (3)

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इस महीने :
'नव ऊर्जा राग'
भावना सक्सैना


ना अब तलवारें, ना ढाल की बात है,
युद्ध स्मार्ट है, तकनीक की सौगात है।
ड्रोन गगन में, सिग्नल ज़मीन पर,
साइबर कमांड है अब सबसे ऊपर।

सुनो जवानों! ये डिजिटल रण है,
मस्तिष्क और मशीन का यह संगम है।
कोड हथियार है और डेटा ... ..

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इस महीने :
'दरवाजे में बचा वन'
गजेन्द्र सिंह


भीगा बारिश में दरवाजा चौखट से कुछ झूल गया है।
कभी पेड़ था, ये दरवाजा सत्य ये शायद भूल गया है।

नये-नये पद चिन्ह नापता खड़ा हुआ है सहमा-सहमा।
कभी बना था पेड़ सुहाना धूप-छाँव पा लमहा-लमहा।
चौखट में अब जड़ा हुआ है एक जगह पर खड़ा हुआ है,
कभी ठिकाना था विहगों का आज ...

..

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इस महीने :
'पेड़ों का अंतर्मन'
हेमंत देवलेकर


कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा
ख़ुशी से फूल गया है

खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं
विस्थापित जंगल होते हैं

मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ
टहनियों पर ...
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इस महीने :
'छाता '
प्रेमरंजन अनिमेष


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करुँगा
और लूँगा एक छाता

इस शहर के लोगों के पास
जो छाता है
उसमें

..

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