अप्रतिम कविताएँ
थकी दुपहरी में पीपल पर
थकी दुपहरी में पीपल पर,
काग बोलता शून्य स्वरों में,
फूल आख़िरी ये बसन्त के
गिरे ग्रीष्म के ऊष्म करों में

धीवर का सूना स्वर उठता
तपी रेत के दूर तटों पर
हल्की-गरम हवा रेतीली
झुक चलती सूने पेड़ों पर।
अब अशोक के भी थाले में
ढेर-ढेर पत्ते उड़ते हैं,
ठिठका-नभ डूबा है रज में
धूल भरी नंगी सड़कों पर।

वन-खेतों पर है सूनापन,
खालीपन निशब्द घरों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में।

यह जीवन का एकाकीपन--
गरमी के सुनसान दिनों सा,
अन्तहीन दोपहरी डूबा
मन निश्चल है शुष्क वनों सा।
ठहर गई हैं चीलें नभ में,
ठहर गई है धूप-छांह भी,
शून्य तीसरा पहर पास है
जलते हुए बन्द नयनों सा।

कौन दूर से चलता आता,
इन गरमीले म्लान पथों में,
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में।
- गिरिजा कुमार माथुर
धीवर -- मल्लाह, मछुआ, केवट
संग्रह "मुझे और अभी कहना है" से
Contributed by Sukanya Sharma

काव्यालय पर प्रकाशित: 10 May 2018

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अनुवाद ~ प्रियदर्शन

नेक बने मनुष्य
उदार और भला;
क्योंकि यही एक चीज़ है
जो उसे अलग करती है
उन सभी जीवित प्राणियों से
जिन्हें हम जानते हैं।

स्वागत है अपनी...

..

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होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...

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