अप्रतिम कविताएँ
जुगलबन्दी
जब तंत्रियों पर फिसलती छुअन
नाभि पर नाचती मिज़राब से
अभिमंत्रित कर देती सितार को
भीतर का समूचा रीतापन
भर उठता है।
रेगिस्तानी सांपों की सरसराहटों
जंगली बासों की सीटियों
बिजली की चीत्कारों
सियारों की हुआ हुआ
तने रगड़ते हाथीयों के गरजने
भैंसों के सींग भिड़ने से
फूट पड़ता है सुरों का जंगली झरना

झरने का वेग
चेहरे पर सहेजते
बांध लेते हैं तबले
समूचे जंगल को
अपनी बांहों में
सुर पार करने लगती हैं पगडंडियां
विलम्बित पर चलती
द्रुत पर दौड़ती
तोड़े की टापों टटकारती
झाले में झनकने लगतीं हैं
हवा कुछ नीचे आ ठहर जाती है
आकाश भी झांकने लगता है

किसे नहीं चाहिए खुशी
अनख रीतेपन के भराव के लिये।
- रति सक्सेना
Rati Saxena
K.P. XI/624 Vaijayant
Chettikunnu, Medical College P.O.
Thiruvananthapuram 685011
Email : [email protected]

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'दिव्य'
गेटे


अनुवाद ~ प्रियदर्शन

नेक बने मनुष्य
उदार और भला;
क्योंकि यही एक चीज़ है
जो उसे अलग करती है
उन सभी जीवित प्राणियों से
जिन्हें हम जानते हैं।

स्वागत है अपनी...

..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
होलोकॉस्ट में एक कविता
~ प्रियदर्शन

लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी-- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अंग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह 'ज्यू' है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी 'ज्यू' है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (Goethe) की कविता 'डिवाइन' की एक पंक्ति बोलती है...

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राष्ट्र वसन्त
रामदयाल पाण्डेय

पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसन्त के चपल चरण।

असंख्य काँपते नयन लिये विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसन्त की...

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