अप्रतिम कविताएँ
एक भी आँसू न कर बेकार
एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
           पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
           यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
           और जिस के पास देने को न कुछ भी
           एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
           चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
           किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
           आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ -
           पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार -
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
           व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
           काम अपने पाँव ही आते सफर में,
           वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा -
           जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में,
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार -
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!
- रामावतार त्यागी

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दिव्या ओंकारी ’गरिमा’


झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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