अप्रतिम कविताएँ
आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...
आज कुछ माँगती हूँ मैं
प्रिय क्या दे सकोगे तुम?
मौन का मौन में प्रत्युत्तर
अनछुये छुअन का अहसास
देर तक चुप्पी को बाँध कर
खेलो अपने आसपास
क्या ऐसी सीमा में खुद को
प्रिय बांध सकोगे तुम
आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...

तुम्हारे इक छोटे से दुख से
कभी जो मेरा मन भर आये
ढुलक पड़े आँखों से मोती
सीमा तोड़ कर बह जाये
तो ज़रा देर उँगली पर अपने
दे देना रुकने को जगह तुम
उसे थोड़ी देर का आश्रय
प्रिय क्या दे सकोगे तुम?
आज कुछ मांगती हूँ प्रिय...

कभी जब देर तक तुम्हारी
आंखों में मैं न रह पाऊँ
बोझिल से सपनों के भीड़
में धीरे से गुम हो जाऊँ
और किसी छोटे से स्वप्न
के पीछे जा कर छुप जाऊँ
ऐसे में बिन आहट के समय
को क्या लाँघ सकोगे तुम
आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...
- मानोशी चटर्जी
Manoshi Chatterjee
Email : [email protected]
Manoshi Chatterjee
Email : [email protected]

काव्यालय पर प्रकाशित: 2 May 2011

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सौन्दर्य और सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
मानोशी चटर्जी
की काव्यालय पर अन्य रचनाएँ

 आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...
 पतझड़ की पगलाई धूप
 प्रिय तुम...
 शाम हुई और तुम नहीं आये
 हे प्रियतम
इस महीने :
'अन्त'
दिव्या ओंकारी ’गरिमा’


झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website